यह कहानी एक ऐसे पर्वतारोही की है जो सबसे ऊँचे पर्वत पर विजय पाना चाहता था। कई सालों की कड़ी मेहनत के बाद उसने अपना साहसिक अभियान शुरु किया। पर वह यह उपलब्धि किसी के साथ साझा नहीं करना चाहता था, अत: उसने अकेले ही चढ़ाई करने का निश्चय किया। उसने पर्वत पर चढ़ना आरंभ किया, जल्दी ही शाम ढलने लगी। पर वह विश्राम के लिए तम्बू में ठहरने की जगह अंधेरा होने तक चढ़ाई करता रहा। घने अंधकार के कारण वह कुछ भी देख नहीं पा रहा था। हाथ को हाथ भी सुझाई नहीं दे रहा था। चंद्रमा और तारे सब बादलों की चादर से ढके हुए थे। वह निरंतर चढ़ता हुआ पर्वत की चोटी से कुछ ही फुट के फासले पर था कि तभी अचानक उसका पैर फिसला और वह तेजी से नीचे की तरफ गिरने लगा। गिरते हुए उसे अपने जीवन के सभी अच्छे और बुरे दौर चलचित्र की तरह दिखाई देने लगे। उसे अपनी मृत्यु बहुत नजदीक लग रही थी, तभी उसकी कमर से बंधी रस्सी ने झटके से उसे रोक दिया। उसका शरीर केवल उस रस्सी के सहारे हवा में झूल रहा था। उसी क्षण वह जोर से चिल्लाया: ‘भगवान मेरी मदद करो!’ तभी अचानक एक गहरी आवाज आकाश में गूँजी:
- तुम मुझ से क्या चाहते हो ?
पर्वतारोही बोला - भगवन् मेरी रक्षा कीजिए!
- क्या तुम्हें सच में विश्वास है कि मैं तुम्हारी रक्षा कर सकता हूँ ?
वह बोला - हाँ, भगवन् मुझे आप पर पूरा विश्वास है ।
- ठीक है, अगर तुम्हें मुझ पर विश्वास है तो अपनी कमर से बंधी रस्सी काट दो.....
कुछ क्षण के लिए वहाँ एक चुप्पी सी छा गई और उस पर्वतारोही ने अपनी पूरी शक्ति से रस्सी को पकड़े रहने का निश्चय कर लिया।
अगले दिन बचाव दल को एक रस्सी के सहारे लटका हुआ एक पर्वतारोही का ठंड से जमा हुआ शव मिला । उसके हाथ रस्सी को मजबूती से थामे थे... और वह धरती से केवल दस फुट की ऊँचाई पर था।
और आप? आप अपनी रस्सी से कितने जुड़े हुए हैं । क्या आप अपनी रस्सी को छोड़ेंगे? भगवान पर विश्वास रखिए। कभी भी यह नहीं सोचिए कि वह आपको भूल गया है या उसने आपका साथ छोड़ दिया है । याद रखिए कि वह हमेशा आपको अपने हाथों में थामे हुए है।
बुधवार, 8 फ़रवरी 2006
मंगलवार, 7 फ़रवरी 2006
चाह
आकाश के कोने में टंगे उस छोटे से धूप के टुकड़े को उतार लाना चाहती हूँ,
जिससे हट जाए मन का सारा अँधकार ।
बादलों में सिमटी उस पानी की बूँद को पाना चाहती हूँ,
जिससे मिट जाए यह अनबुझी प्यास ।
उड़ते पंछियों के परों को अपनाना चाहती हूँ,
जिससे यह दिल भी भर सके उड़ान ।
तितलियों से फूलों का रस लेना चाहती हूँ,
जिससे जीवन में भर सकूँ मिठास ।
दिल में बंद बातों को शब्दों में सहेजना चाहती हूँ,
जिससे कुछ भी न रह जाए अनकहा ।
हर पल को पूरी तरह जीना चाहती हूँ,
जिससे गम न हो कि जिंदगी को क्यों नहीं जिया ।
जिससे हट जाए मन का सारा अँधकार ।
बादलों में सिमटी उस पानी की बूँद को पाना चाहती हूँ,
जिससे मिट जाए यह अनबुझी प्यास ।
उड़ते पंछियों के परों को अपनाना चाहती हूँ,
जिससे यह दिल भी भर सके उड़ान ।
तितलियों से फूलों का रस लेना चाहती हूँ,
जिससे जीवन में भर सकूँ मिठास ।
दिल में बंद बातों को शब्दों में सहेजना चाहती हूँ,
जिससे कुछ भी न रह जाए अनकहा ।
हर पल को पूरी तरह जीना चाहती हूँ,
जिससे गम न हो कि जिंदगी को क्यों नहीं जिया ।
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