सोमवार, 17 अप्रैल 2006

कुछ मज़ेदार तस्वीरें

आज अपने कंप्यूटर की साफ-सफाई करते हुए ये कुछ मज़ेदार तस्वीरें हाथ लगीं। सो पेश हैं-




क्लिक कीजिए फिर पूरी तस्वीर सिलेक्ट कीजिए (Control + A) और देखिए।






अगर स्पाईडरमैन हिंदी फिल्मों का हीरो होता तो कुछ यूँ होता ।





कलयुग के विश्वामित्र और मेनका ।








शिकारी खुद यहाँ शिकार हो गया । कलयुग में यह भी संभव है।









बंदर ही मनुष्य के पूर्वज हैं। विश्वास नहीं होता तो खुद ही देख लीजिए।






यारों की सवारी। यारों का साथ हो तो हर सफ़र सुहाना हो जाता है।

सोमवार, 10 अप्रैल 2006

अनुगूँज १८: मेरे जीवन में धर्म का महत्व

Akshargram Anugunjपहली बार अनुगूँज में भाग ले रही हूँ। जहाँ तक जीवन में धर्म के महत्व का प्रश्न है तो मैं यह मानती हूँ कि धर्म से ज्यादा अध्यात्म जीवन के लिए जरुरी है।

भारत में हिन्दु, मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख धर्म और फिर इन धर्मों से जुड़ी हुई अनेक शाखाएँ हैं। भारत में चार हजार भाषाएँ हैं, जातियाँ हैं तो धर्म भी इतने ही हो सकते हैं क्योंकि धर्म का जाति से चोली-दामन का रिश्ता है। कैसे हैं ये धर्म? संकीर्ण विचारों से ग्रस्त, अनेकानेक मनगढ़न्त मान्यताओं व धारणाओं में कैद तथा सिर्फ अपने धर्माचरण के नियमों के प्रति प्रतिबद्ध। कार्ल मार्क्स ने सही कहा है कि “धर्म अफीम का नशा है”। लोगों को धर्म का नशा इतना चढ़ गया है कि उन्हें यह भान नहीं रहा कि वे मानव भी हैं। इन तथाकथित धर्म के अनुयायियों में करुणा, दया, अहिंसा, प्रेम, सहिष्णुता का नाम तक नहीं है। आडम्बर, पाखण्ड, घमण्ड का लबादा ओढ़कर महान आस्तिक कहलाते हैं। आँखों पर मानो कोई पट्टी बँधी है इसलिए अपने सामने का व्यक्ति मनुष्य नजर नहीं आता। इतना दम्भ। यह धर्म का नशा ही तो है।

चाहे आसाम का कामाख्या मंदिर हो या फिर कोलकाता का रुद्र काली का मंदिर, बिना बलि के वहाँ भोग प्रसाद नहीं चढ़ता। क्या ममता, करुणा-दया की साक्षात मूर्ति माँ इतनी कठोर और हिंसक हो गई है कि वह अपने जीवित, लाचार व मूक पशु रूपी बच्चों का भक्षण कर सकती है। इसी प्रकार कुर्बानी के नाम पर बकरे का निर्मम तरीके से सिर कलम किया जाता है, क्या खुदा इतना क्रूर है कि उसे खुथ करने के लिए एक निरीह पशु की हत्या की जाए? कोई भी धर्म यदि हिंसा की इजाजत देता है तो वह धर्म नहीं है। आज धर्म के नाम पह लोग एक दूसरे को मारने में जरा भी संकोच नहीं करते। “धर्म” शब्द संस्कृत की “धृ” धातु से बना है जिसका अर्थ है धारण करना। जिस शक्ति ने हमें, हमारे शरीर के धारण कर रखा है उसी शक्ति ने सारे विश्व को, संपूर्ण ब्रह्मांड को धारण कर रखा है वह है धर्म “धारयिते इति धर्म:”।

चूँकि इस शक्ति को हमने भुला दिया और सच्चा धर्म न जानकर पाखण्ड रुपी भूलभुलैया में भटक गए, इसलिए आज अध्यात्म की आवश्यक्ता है। अधि: आत्म-आत्मा में प्रवेश करना अध्यात्म है। हालांकि अध्यात्म को भी धर्म के ठेकेदारों ने नहीं छोड़ा है, धर्म का मुलम्मा चढ़ाकर अध्यात्म की दुकानदारी कर रहे हैं और यही कारण है कि लोगों में परिवर्तन नहीं होता। रत्नाकर डाकू वाल्मिकी बन गए, कितने ही दुराचारी, पापियों का अध्यात्म का मार्ग अपनाने से हृदय परिवर्तन हुआ तो क्यों नहीं आज भी अध्यात्म को अपनाया जाए।

अध्यात्म वह विद्या है जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में “राजविद्या” कहकर संबोधित किया है। अध्यात्म की कोई शाखा नहीं है क्योंकि इसका सीधा तात्पर्य है प्रत्येक मनुष्य के अंत:करण में मौजूद “चैतन्य” से साक्षात्कार करना और जब वह यह अनुभूति कर लेगा तो स्वत: ही दिव्य व अलौकिक गुणों का विकास होगा, बुरे विचार और आदतों का परित्याग होगा तथा एक सुंदर समाज की रचना की बुनियाद मजबूत होगी। धर्म के नाम पर जब लोग भटक जाते हैं तो “यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:” की बात भी चरितार्थ होती है और श्रीकृष्ण को अंतत: कहना भी पड़ा “सर्व धर्मान् परित्यज्यते मामेक शरणं ब्रज:” अर्थात् समस्त धर्मों का परित्याग कर मुझ एक की शरण में आ जा और यही संदेश अध्यात्म का है। अध्यात्म वह “ज्ञान” है जिसमें कि “स्वंय” का परिचय मिलता है और अंत:करण में प्रवेश कर केवल एक ही प्रभु की शरण का आश्रय।
जहाँ भेद-भाव, पाखंड और कर्मकांड का कोई स्थान ही नहीं है, करुणा, दया, प्रेम, शांति और आनंद जहाँ मौजूद है, जिनकी मनुष्यों को आवश्यकता है और धर्म चूँकि ये चीजें नहीं दे सकता, अध्यात्म द्वारा ही प्राप्त की जा सकती हैं इसीलिए आज धर्म नहीं, अध्यात्म जरुरी है।